Monday, June 16, 2008

सच्चाई (ग्रेटर नॉएडा से गोयल कहता है)

रोज़ी तो क्या रोटी भी नहीं जुड़ती है, थियेटर करके | बस एक तसल्ली सी रहती
है कि हम मुकम्मल हो रहे हैं | अब मैंने एक फटा पैजामा दस साल से जोड़ के
रखा है कि कभी तो किसी नाटक में किसी के काम आएगा | यही सोच कर सुकून कर
लेते हैं कि कुछ तो दे रहे हैं थियेटर को | अब आजकल के नए नए लड़के सोचते
हैं कि अवार्ड मिलेंगे, मैं कहता हूँ कि करोगे क्या इन अवार्ड का | अरे
हमने भी बड़े अवार्ड इकठ्ठे कर लिए, अब घर में रखने की जगह ही नहीं बची.
मेरी पत्नी ने उन्हें एक दिन बेच दिया कबाड़ी को | इससे अच्छा कोई उपयोग
नहीं नज़र आया हमें उन अवार्ड का. बहुत कुछ देना पड़ता है थियेटर को, अपने
वक़्त..व्यक्ति..अ..अ..व्यक्तित्व से भी बहुत कुछ ज्यादा देना पड़ता है
थियेटर को | इन २० सालों में थियेटर करते करते यही समझ पाया हूँ. देना ही
देना है, लेना कुछ नहीं है..थियेटर से..
ये मन की बातें हैं, हेमंत मिश्रा की, जो दिल्ली में कुछ १५ सालों से
सक्रिय रूप से थियेटर कर रहे हैं..वही हेमंत मिश्रा हैं यह, जो एक फूल-
माला टंगी फोटो में से बाहर निकल कर हमें ट्रेन क्रॉसिंग पर सावधानी
बरतने को बताते थे, दूरदर्शन में, कुछ १० साल पहले, और मुझे आज तक याद
है, "इब्ब हो जाता हैप्पी बर्थडे", और आखिरी में "फर्क तो पड़ता है
भाई"...
यह सब आज दूरदर्शन भारती पर देख कर कतई भी निरुत्साहित नही हुआ..बल्कि
मुझे यह सच्चाई बहुत उत्साहित करती है, यही सच्चाई और संघर्ष है जिसके
लिए मैं पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाता हूँ, लेकिन थोड़े आराम के साथ,
कम से कम नाटक करने की कठिनाइयों और सोच को हासिल करना चाहता हूँ...

1 comment:

faiqg said...

थियेटर से मुझे तो काफ़ी चीज़ें मिली है। दोस्त उस सूची मै सबसे ऊपर हैं। बाकी लिस्ट कभी फ़ुरसत मैं बताउंगा।