Thursday, July 22, 2010

Deluxe hair Cutting Saloon

Well as you know we are putting up a show at K H Kala Soudha on 24-July-2010 . The play is "Deluxe Hair Cutting Saloon" written and directed by Sandeep Shikhar. A number of people have asked me, what the play is about ( The writer made sure that you couldn't make any sense from the title ;) ). Obviously I can't divulge the story here because Sandeep has made us sign a 200 page non-discolsure agreement. Sometimes I wonder whether I am even allowed to play my character on the final day or will Sandeep's legal team sue me for doing that . But I digress from the topic(age is catching up).

So putting myself at risk of a lawsuit, I would like to say something about the play. It is the simplest of plays , it is the most complex of plays (please ignore the plagiarism on my part). Well it is simple enough to understand at the first level , but it has enough complexity to make you think and discuss about as you leave the theatre. Frankly sometimes I wonder how did the writer come up with such intricate layers. Each time I go through the script I find something new (no I am not stupid) and I believe the effect would be more profound when you are watching the play. It is like a multi layered cake wherein all you taste in the first byte is the sweetness, but as you continue eating , you feel the tinge of different flavors and ingredients and you end up wondering , how did the chef come up with this recipe.

The play shows a motley group of people who have no reason to be together except a strange underlying connection which keeps them together. They love hating each other. The closest analogy I can come up with is number of soft balls attached to each other with rubber strings. The more they go away from each other the faster they come back. Sandeep has done a brilliant job in presenting so many emotions and complexities in the simplest of settings. The play is sometimes funny and sometimes sad and sometimes abstract. But in the sadness you see the reason for the people to stick to each other, in the funny part you can feel the underlying frustrations and limitations whereas the abstract gives credence to reality. The characters are unique but have commonalities. Their anger is in your face but their compassion is subtle. And with all this you end up wondering , what is real and what is abstract. Where does the dream end and where does the reality begin, but I think this the PIE talking .(Post Inception Effect)

Nevertheless I believe the play should be a good watch and I hope the cast (includes me) and the director can do justice to the script.


D / Smit

Thursday, April 2, 2009

भडमानुस

अब तो आपको पता ही है की सभी मशालों ने नव वर्ष की छुट्टी को कुछ ज्यादा ही लम्बा खींच दिया था| खैर वापस आये तो सही, और वो भी धमाके के साथ| ३१ मार्च को बंगलोर नाट्य जगत के मक्का कहलाने वाले रंगशंकरा के प्रेक्षागृह में मशाल ने भडमानुस नामक नाटक का मंचन किया| और यकीन मानिए जिस उच्च कोटि का नाटक हुआ, उस की उम्मीद तो स्वयं हम लोगों को भी नहीं थी| ख़ुशी इस बात की है की दर्शकों ने नाटक का भरपूर आनंद उठाया, और सबसे महत्त्वपूर्ण ये की उन्होंने नाटक की गहराई को भी समझा|

बड़ी अजीब दास्ताँ है भडमानुस की| ये नाटक बिट्स के हिंदी ड्रामा क्लब के हमारे दो साथियों, रचना और ईशान, ने २००६ में लिखा था| सितम्बर २००६ में हुए पहले मंचन के बाद, परसों रंगशंकरा में इसका तीसरा मंचन था| और मज़े की बात ये है की हर बार नाटक के कलाकार अलग थे, उसी तरह दर्शकों की प्रतिक्रिया भी अलग थी| मैं इतना कह सकता हूँ की परसों रंगशंकरा में दर्शक दीर्घा में बैठे सभी जनों का पूरा मनोरंजन हुआ होगा, और उम्मीद है की कुछों को इस नाटक ने सोचने पर मजबूर भी किया होगा|

नाटक की कहानी की चर्चा यहाँ करना उचित नहीं होगा, पर भडमानुस ने कई प्रश्न उठाये हैं हमारी जीवन शैली पर| किस तरह हम इतिहास को अपना शास्त्र बनाकर भविष्य में दोबारा वही गलतियाँ करते हैं| किस तरह हम अपने जीवन को सफल बनाने की क्रिया में उसको और जटिल बना देते हैं| जो अराजक्ता के बीज हमारे पूर्वजों ने बोए थे, उसकी फसल आज तक मानवता काट रही है| हम तो यही उम्मीद कर सकते हैं की हम कुछ ऐसा न कर रहे हों की हमारी आने वाली नस्लें, हमें अपनी असफलता का दोषी ठहराएं| ये सब सवाल छुपे हैं भडमानुस में| अगर आप सोचें तो ये बस एक कहानी है, नहीं तो ये हमारे इतिहास का काला चिटठा है|

खैर, अब तो आगे बढ़ना है| अगला नाटक मई में होगा, २३ तारीख को अलायंस फ्रांसे आरक्षित है मशाल के अगले नाटक के लिए| उसकी सूचना आपको जल्द ही मिलेगी| तब तक के लिए मशाल प्रणाम!!!

Thursday, March 26, 2009

भढ़मानुस और वोह फिल्म

कोई फिल्म क्यूँ पसंद आती है?
सबके अपने अपने ख़याल होते हैं, जो पसंद को परिभाषित करते हैं. कुछ फिल्में देखते वक़्त ख़ास समझ नहीं आती. लेकिन मन मैं एक छाप छोड़ जाती हैं. फिर कभी उसका ज़िक्र निकलता है या कोई ऐसा वाकया होता है जो उस फिल्म, उस कहानी को नए मायने दे जाता है.
Rashomon के साथ भी कुछ ऐसा है. परछाइयां. जंगल. क़त्ल. बेवफाई. हैवानियत. झूठ. सच. इंसान. धर्म. औरत. समाज. समझ.
और कितने ही लफ्ज़ उस कहानी के साथ जुड़े हुए हैं.
पर जो मैं सोच रहा हूँ, ज़रूरी नहीं है वोह किसी और ने सोचा होगा. हर एक की अपनी समझ है जिसको लेके वोह ज़िंदा रहता है.
नाटक लिखते वक़्त ईशान शुक्ल और रचना रेड्डी अपने मन् मैं क्या क्या सोच रहे थे. फिल्म और उसकी कहानी से क्या मतलब निकाल रहे थे. पटकथा पढ़ कर काफी कुछ समझ आता है. पर अब भी काफी कुछ ऐसा है जो आज की तारीख मैं शायद लेखक भी नहीं बता पाएंगे. वक़्त के साथ बातों का औचित्य भी बदल जाता है. इस नाटक का चौथा निर्देशक होते हुए प्रत्युष ने पिछले तीनो निर्देशकों से कुछ अलग कुछ नया अर्थ निकाला होगा.
कोई चरित्र ऐसा क्यूँ है? क्या वोह सच बोल रहा है? सच्चाई आखिर क्या है? किस के मन् मैं चोर नहीं है? सही और गलत मैं कितना फर्क रह गया है? दुनिया भर के ढकोसलों को उधेढ़ कर रख देने वाला ये नाटक, कल भी उतना ही सटीक था और कल भी रहेगा.
आने वाले मंगलवार की शाम को जो भढ़मानुस देखेगा वोह किस सोच के साथ बैठ कर क्या मतलब निकालेगा यह कोई नहीं जानता. पर एक बात साफ़ है, यह नाटक, ज़िन्दगी की उलझी विचारधाराओं पर कई सवाल कसेगा और कई सवालों के जवाब भी सामने आयेंगे.
देखते हैं. रंगशंकरा आइये ३१ मार्च को शाम साढ़े सात के पहले.

Saturday, December 13, 2008

Bhadmanus Poster in Hindustan Times

On 10th Dec 2008 the Bhadmanus poster (HDC) was printed in front page of Hindustan Times,HT Cafe section. Have a look :)

Bhadmanu poster in HT Cafe.

Wednesday, December 10, 2008

Theatre Workshop 2008

Dear Friend(s)

Mashaal is conducting a 3 day (15 hrs) workshop on "Theatre Basics". The workshop
is aimed at theatre enthusiasts with no or little prior theatre experience .

If you are interested in taking a plunge in the world of theatre or want to experience 3 days of fun filled theatre activities you are welcome.

To register or for any queries just reply to this mail at mailmashaal@gmail.com.
You could also give a call at my / mashaal's number given below.

Please forward this information to all interested people.

Communication medium : English+Hindi
Timings : 10:00 am - 03:00 pm each day.
Location : City Nest, CMH Rd, Bangalore
Registration fee : Rs. 1000 per participant
Who can join : Anyone and every one above the age of 16yrs.

Mashaal is a theatre group formed by HDC, BITS, Pilani alumni.

Regards
Smit (D)
9880817592

Visit Us : www.mashaal.co.in
Write To Us : mailmashaal@gmail.com
Talk To Us : +91-9739-803-104

Thespo X

सबसे पहले एक कमाल की बात । यदि आप chrome पर blogger खोलते हैं तो आपको हिन्दी मैं लिखने का बटन नहीं दिखाई देगा | मुझे लगा कि google की site , google के browser पर तो चलनी ही चाहिए , पर मुझसे कौन पूछ रहा है | तो ठीक है भैय्या हम "जलती हुई लोमडी" पर आ गए |

तो नई ताज़ी यह है की आज मशाल के कुछ जवान (जवान का स्त्रीलिंग जवानी हो जाता है :D) मुंबई के पृथ्वी प्रेक्षाग्रह में "भड़मानुस " का मंचन करने वाले हैं । इच्छा तो यह थी की वहाँ रह कर सब का हौसला बढाऊँ पर कमबख्त पापी पेट की वजह से office में बैठना पड़ रहा है | आशा करता हूँ कि आज का मंचन उत्तम होगा और मशाल के प्रतिनिधि हमें गौरवान्वित करेंगे । यदि आप मुंबई में हैं तो पृथ्वी ज़रूर जाईयेगा | अभी लिखने को और ज्यादा नहीं है | दिसम्बर में मशाल एक नाट्य कार्यशाला का आयोजन कर रहा है | पर वह बाद की बात है पहले तो मुंबई पर फतह हासिल करनी है | आमीन |