बच्पन से हम अपने दोस्तों और वालिदैन को तरह तरह की कहानिया सुनाते आए हैं. झूटी - सच्ची, पक्की - कच्ची, ताजा खबरें और बासी मच्छी. किसी की नक़ल करना हमारा सबसे पसंदीदा काम होता था. कोई दोस्त कैसे बोलता है, शर्मा अंकल कैसे खांसते हैं, दादा जी कैसे सबको डाँट देते थे और दादी कैसे कुछ कह के डाँट से बचा लेती थी. कैसे पड़ोस का बल्लू अपनी मम्मी को चिल्ला चिल्ला कर बुलाता है और कैसे उसकी मम्मी उसको डाँट कर दो तीन चपेट टिका देती हैं.
स्कूल पहुचे तो भाषा की क्लास मैं टीचर रीडिंग करने को बोलती थी और हम ऐसे एहसान जताते थे जैसे हिंदुस्तान पर शासन करने का काम छोड़ कर अब यह कहानी पढ़ना पढ़ रही है. तुच्छ कार्य! छी! कहानी के नायक की भावनाओं तो साहब दूर की बात है, लेखक अगर सुन ले तो या तो लिखना बंद कर दे या फिर NCERT से अपना लेख वापस मंगवा ले. हिन्दी की क्लास मैं निबंध और कहानी एक जैसे पढे जाते थे.
ज़िंदगी मैं आगे चल कर भाषा से भले ही थोड़े और दूर हो गए लेकिन कहानी सुनना नही छोडा. कहानियाँ गढ़ गढ़ के ही तो हम आगे बड़ते हैं. ज़िंदगी मैं, नौकरी मैं, रिश्तों मैं.
कहानी सुनाने की इस परम्परा को एक कदम आगे बढाते हुए मशाल के हमारे जवानों ने नाटक पढने का कार्यक्रम आयोजित किया. शुरू करने के लिए चुना एक सीधा सादा नाटक. अब देखा जाए तो इस नाटक मैं समाज पर काफ़ी व्यंग कसे गए हैं, लेकिन कहानी सादी सी है. नाटक का नाम, 'तिल का ताड' और लेखक शंकर शेष. नारी मुक्ति, खोखले आदर्श, समाज की बेवजह दखलंदाजी, झूठी नैतिकता जैसे विषय बड़े ही सहज ढंग से नाटक मैं छुपे हुए हैं. नाटक पढ़ कर ऐसा लगा जैसे सत्तर के दशक की किसी फ़िल्म की पटकथा है. एक से एक चरित्र, या यूं कहें, नमूने हैं इस नाटक मैं. कहानी का नायक अपने कुवारेंपन से खफा है तो उसका मकान मालिक पैसों और खाने के अलावा बात ही नही करता. एक महाशय बात कम करते और थूकते ज़्यादा हैं तो दूसरे सबको ब्रह्मचारी बनने का उपदेश देते रहते हैं. सिर्फ़ एक स्त्री चरित्र के साथ यह नाटक समाज की अच्छाई - बुराई को मजाकिया ढंग से सामने लाता है.
CFD वैसे तो छोटी सी जगह है लेकिन कलाकारों और दर्शकों को बातें करने का मौका देती है. मुट्ठी भर श्रोताओं के सामने यह नाटक पढ़ना बहुत ही उम्दा अनुभव था. कमी थी तो सिर्फ़ बारिश, चाय और पकोड़ों की. यह नाटक - पठन, कलाकार और दर्शकों की उन तमाम दूरियों को कम कर गया क्यूँकि नाटक के दो चरित्र चार श्रोताओं ने पढे. उनको सौ दो सौ साल बाद हिन्दी पढने मौका मिला और नाटक के चरित्र अलग अलग आवाजों मैं नए नए रूप लेते गए. उन चारों श्रोताओं ने जैसे चरित्रों मैं अपने नए रंग डाल दिए हों.
उम्मीद है आने वाले दिनों मैं ऐसे और कई संवाद होंगे जहाँ किस्से कहानी, मजाकिया रूमानी सुनने सुनाने का मौका मिले.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
वाह! क्या लिखा है!!
हम तो कायल हो गए फैक़ साहब की लिखाई के!!!! :) :)
शुक्रिया! वैसे नाम फ़ाइक् है।
"उनको सौ दो सौ साल बाद हिन्दी पढने मौका मिला"
हा हा ! फ़ाइक् साहब , आपकी विनोदपूर्णता की दाद देनी पड़ेगी .. बड़ा लज़ीज़ लेख लिखा है :)
doing great job. keep it up.
---
ulta teer
Post a Comment