Thursday, March 26, 2009

भढ़मानुस और वोह फिल्म

कोई फिल्म क्यूँ पसंद आती है?
सबके अपने अपने ख़याल होते हैं, जो पसंद को परिभाषित करते हैं. कुछ फिल्में देखते वक़्त ख़ास समझ नहीं आती. लेकिन मन मैं एक छाप छोड़ जाती हैं. फिर कभी उसका ज़िक्र निकलता है या कोई ऐसा वाकया होता है जो उस फिल्म, उस कहानी को नए मायने दे जाता है.
Rashomon के साथ भी कुछ ऐसा है. परछाइयां. जंगल. क़त्ल. बेवफाई. हैवानियत. झूठ. सच. इंसान. धर्म. औरत. समाज. समझ.
और कितने ही लफ्ज़ उस कहानी के साथ जुड़े हुए हैं.
पर जो मैं सोच रहा हूँ, ज़रूरी नहीं है वोह किसी और ने सोचा होगा. हर एक की अपनी समझ है जिसको लेके वोह ज़िंदा रहता है.
नाटक लिखते वक़्त ईशान शुक्ल और रचना रेड्डी अपने मन् मैं क्या क्या सोच रहे थे. फिल्म और उसकी कहानी से क्या मतलब निकाल रहे थे. पटकथा पढ़ कर काफी कुछ समझ आता है. पर अब भी काफी कुछ ऐसा है जो आज की तारीख मैं शायद लेखक भी नहीं बता पाएंगे. वक़्त के साथ बातों का औचित्य भी बदल जाता है. इस नाटक का चौथा निर्देशक होते हुए प्रत्युष ने पिछले तीनो निर्देशकों से कुछ अलग कुछ नया अर्थ निकाला होगा.
कोई चरित्र ऐसा क्यूँ है? क्या वोह सच बोल रहा है? सच्चाई आखिर क्या है? किस के मन् मैं चोर नहीं है? सही और गलत मैं कितना फर्क रह गया है? दुनिया भर के ढकोसलों को उधेढ़ कर रख देने वाला ये नाटक, कल भी उतना ही सटीक था और कल भी रहेगा.
आने वाले मंगलवार की शाम को जो भढ़मानुस देखेगा वोह किस सोच के साथ बैठ कर क्या मतलब निकालेगा यह कोई नहीं जानता. पर एक बात साफ़ है, यह नाटक, ज़िन्दगी की उलझी विचारधाराओं पर कई सवाल कसेगा और कई सवालों के जवाब भी सामने आयेंगे.
देखते हैं. रंगशंकरा आइये ३१ मार्च को शाम साढ़े सात के पहले.

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