Tuesday, September 2, 2008

गुजरते हुए

सोचा कुछ लिखा जाए , पर आजकल समय ही नहीं मिल रहा है | अभी पिछले इतवार को CFD में "संवाद" हुआ और आने वाले शनिवार को Alliance Francaise में "सिफर" का मंचन है | ऐसा लगता है चारों तरफ़ आग लगी हुई है | प्रत्युष ने अभी तक आधे शहर का चक्कर मार लिया होगा दस-बारह बार ;) , और उसका ड्राईवर है bang | मैं ऑफिस में बैठा यह कर रहा हूँ या फिर फ़ोन पर लोगों को डरा रहा हूँ की अगर उन्होंने टिकेट नहीं खरीदे तो मैं उनसे मिलकर उनका जीवन दुष्वार कर दूँगा | विकास नौकरी छोड़कर टिकेट का विक्रय-कर्ता बना हुआ है और रोज़ सुबह बारिश हो रही है और हमारे स्टेज पर कुत्ते बैठे रहते हैं और आज एक गाय दीवार पर खड़ी थी स्टेज की एक दीवार टूटी हुई है , घुटनों तक पानी में चलकर practice पर पहुंचना पड़ता है , रोज़ सुबह १६ किलोमीटर बंगलोर के ट्रैफिक में गाड़ी चलानी पड़ती है ... आआआः मैं पागल हो रहा हूँ |अगर आप यह पढ़ें तो ६ सितम्बर को Alliance Francaise पहुँच जाएँ , वरना अच्छा न होगा | चलिए फिर मिलेंगे |

2 comments:

faiqg said...

टिकिट बेचना बहोत मुशकिल काम है भाई। रोज़ दफ़्तर वालों से पूछ्ता हूँ, बताता हूँ कि जनाब थियेटर करना मज़ेदार है लेकिन मर मर के उस मज़े का मज़ा लेना पड्ता है। सारे के सारे मेरे बस्ते मैं रखे हुए हैं। प्रत्युश के फ़ोन पर फ़ोन आ रहे हैं, स्मित पेस के बहाने टिकिट बेचने की याद दिला गया। पर टिकिट हैं कि बिकते ही नहीं। The Apt Pupil के लिये बमुश्किल 6 टिकिट बेच पाया था। सभी थियेटर के लिये नए थे और इस बार तो उनकी उत्सुक्ता का भी फ़ायदा नहीं उठा पाया। ऊपर से इतना प्रेशर है कि 'मैं बँगलौर मैं इतने सालों से हूँ', 'इतने लोगों को जानता हूँ' ... पर कैसे कहूं की नाटक के टिकिट बेचना, यहाँ के किसी पब मै भीड़ जुटाने से ज़्यादा मुशकिल है।
माफ़ी!

Thoda Khao Thoda Phenko said...

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ऐ-जंग में
वो तिफ्ल क्या गिरें जो घुटनों के बल चलें

मियाँ बात तो सही है कि टिकट बेचना है बहुत मुश्किल.....पर बम्बू लेना तो अब आदत में शुमार हो चुका है..... :) :) :)